सुख के लिए चित्त-शांति

प्रत्येक मनुष्य का जीवन सर्वथा उसके  अधीन है। जो कुछ दु:ख या सुख हमें प्राप्त होते हैं, उनमें कार्य-कारण का एक विशेष नियम रहता है। दु:खों का कारण वे स्वयं होते हैं। अगर मनुष्य जान-बूझ कर वहम्ï, अज्ञान, भूल, अंधकार और दु:ख की कोठरी में समस्त जीवन बैठा रहे और दु:ख की शिकायत करता रहे, तो क्या उसका दु:ख दूर हो जाएगा? वास्तव में विचार किया जाए, तो सुख के लिए अपने चित्त की शांति और एकाग्रता की ही आवश्यकता है, दूसरी वस्तुओं का सहारा ढूँढऩे की आवश्यकता नहीं।

एक मनुष्य ऐसा होता है कि जहाँ जाता है, वहाँ उसे आनंद ही मिलता है। प्रत्येक परिस्थिति उसको अनुकूल मालूम होती है। दूसरा मनुष्य ऐसा होता है, जिसे प्रत्येक वस्तु में बुराई-ही-बुराई नजर आती है। प्रत्येक वस्तु या मनुष्य के संपर्क में आकर वह खिन्न हो जाता है। वह जगत्ï को न रहने योग्य स्थान मानता है।


संसार में रहकर तरह-तरह के अभाव, विघ्र-बाधा, आधि-व्याधि के आक्रमण से बचना संभव नहीं है, पर उस परिस्थिति में भी शांत और धैर्ययुक्त रहना हमारे हाथ में है।


बाहरी वस्तुओं के आधार पर सुख की आशा रखने वाला अवश्य धोखा खाता है। इसलिए सुखी रहना चाहते हो, तो अपने आप पर, अपने मन पर अधिकार रखना सीखो।