उस सृष्टि-निर्माता की कलाकृति-जीवन की शोभा को देखने के लिए, लक्ष्य तक पहुँचने के लिए, यह आवश्यक है कि एक पथिक की भाँति मार्ग के सुख-दु:खों को प्रधानता न देकर उन्हें सहन करते हुए अपने गंतव्य स्थान की ओर चलते रहना ही हमारा ध्येय हो। साथ ही मार्ग के सुख-दु:खों के कारण देह बुद्धि को अपने विवेक एवं ज्ञान से समाप्त करना होगा। हमें यह समझना चाहिए कि हम शरीर नहीं हैं। हम मन एवं बुद्धि नहीं हैं, प्रत्युत इनसे परे जो है, वही हम हैं। जिस आत्मा का सर्वत्र पसारा है, वही तो हम हैं, क्योंकि ज्यों ही आत्मा इस शरीर को छोड़ती है, बुद्धि का व्यापार खत्म हो जाता है। शरीर भी अपनी क्रियाशीलता समाप्त कर देता है, केवल बचा रहता है, पंचतत्त्वों का मिश्रण।
जिसकी तुष्टि एवं पुष्टि में ही जीवन बिताया, उस मृत शरीर की यह गति कि उसका स्पर्श भी लोग घृणित समझें। इस नश्वरता का अनुभव प्राय: हम करते ही रहते हैं, फिर हम वास्तविक ज्ञान से परे हैं, सच्चिदानंद की आनंद एवं सौंदर्य से पूर्ण सृष्टि को नारकीय रूप में अनुभव करते हैं। दु:ख, अभाव, कठिनाइयों एवं विपदा से जीवन को दूषित बना रहे हैं, यह हमारी ही भूल है।भी हमारा ध्यान वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करने की ओर नहीं मुड़ता। आत्मा के वास्तविक स्वरूप की, सौंदर्य की, जीवन की महत्ता की जानकारी प्राप्त करने की हमारी इच्छा ही नहीं होती।