तुम परमात्मा की आधी शक्ति के मध्य में खड़े हुए हो, तुमसे ऊँचे देव,
सिद्ध और अवतार हैं तथा नीचे पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि हैं। ऊपर वाले केवल
मात्र सुख ही भोग रहे हैं और नीचे वाले दु:ख ही भोग रहे हैं। तुम मनुष्य ही
ऐसे हो, जो सुख और दु:ख दोनों एक साथ भोगते हो। यदि तुम चाहो, तो नीचे
पशु-पक्षी भी हो सकते हो और चाहो तो देव, सिद्ध, अवतार भी हो सकते हो।
यदि तुम्हें नीचे जाना है तो खाओ, पीओ और मौज करो। तुम्हें तो सुख के लिए
धन चाहिए, वह चाहे न्याय से मिले या अन्याय से । नीचे आने में बाधा या कष्ट
नहीं है। पहाड़ से नीचे उतरने में देर नहीं लगती। इसी तरह यदि तुम अपने भाग्य
को नष्ट करना चाहो, तो कर सकते हो, परंतु पीछे तुम्हें पश्चात्ताप करना
पड़ेगा। यदि तुम ऊपर जाना चाहो, तो तुम्हें सत्य-मिथ्या, न्याय-अन्याय,
धर्म-अधर्म के बड़े-बड़े विचार करने पड़ेंगे। पर्वत के ऊपर चढऩे में कठिनाई के
दु:ख को सिर पर ले लोगे, तो परम सुखी हो जाओगे। दोनों बातें तुम्हारे लिए सही
हैं; क्योंकि तुम बीच में खड़े हो, मध्य में रहने वाले आगे-पीछे अच्छी तरह देख
सकते हैं, तुम ही अपने भाग्य विधाता हो, चाहे जो कर सकते हो, तुम्हारे लिए
उपयुक्त और अनुकूल समय यही है, समय चूक जाने पर पश्चात्ताप ही हाथ रह जाता है।