श्रेय और प्रेय दोनों मार्ग खुले हैं

यहाँ हर श्रेष्ठ व्यक्ति को कठिनाइयों की, असुविधाओं की अग्रिपरीक्षाओं में होकर गुजरना पड़ा है। जो विवेक को अपनाए रहता है, प्रलोभनों में स्खलित नहीं होता और सन्मार्ग से किसी भी कारण कदम पीछे नहीं हटाता, वस्तुत: वही इस भवसागर को पार करता है,

वही माया के जादू से अछूता बचा रहता है और उसी का मानव-शरीर धारण करना सार्थक होता है।

श्रेय का मार्ग महान् है। पुण्य परमार्थ के, श्रेष्ठता और महानता के, धार्मिकता और आस्तिकता के पुण्य-पथ पर चलना कुछ कठिन नहीं है और इस दिशा में चलते हुए निरंतर प्राप्त होती रहने वाली शांति को उपलब्ध करना भी कुछ कष्टसाध्य नहीं है। आवश्यकता

केवल इतनी ही है कि मनुष्य तुरंत के लोभ का त्याग कर दूरवर्ती परिणामों पर विचार  करे और उसी के आधार पर अपनी गतिविधियाँ विनिर्मित करने के लिए कृतसंकल्प एवं कटिबद्ध हो जाए। दोनों मार्ग सामने खुले पड़े हैं, यह अपनी इच्छा के ऊपर पूर्णतया निर्भर है कि दोनों में से किसी को भी चुन लें।

सभ्य समाज की रचना का होना या वर्तमान असभ्यता  का और भी दिन-दिन अधिक बढ़ते जाना, हमारे इसी चुनाव पर निर्भर है। एक श्रेय, दूसरा प्रेय, यह  दोनों ही उम्मीदवार खड़े हैं। यह हमारी अपनी पसंदगी की बात