मानसिक विकास और आत्मज्ञान

महान् पुरुष इसलिए भी काम करते हैं, जिससे कि उनको देखकर दूसरे लोग उसी प्रकार के काम में लग जाएँ और इस तरह के  काम में लगकर आत्मविकास करें। जो लोग सबके हित में अपने हित को देखते हैं और जो लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर कार्य करते हैं, उनको किसी प्रकार का मोह अथवा शोक नहीं होता। वे मृत्यु से नहीं डरते। वे सदा आनंद की ही स्थिति में रहते हैं-
यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्नेवाभिजानत,
(तत्र को मोह क: शोक एकत्वमनुपश्यति।)
(ईशोपनिषद)
मानसिक विकास का अंतिम लक्ष्य अपने आप को उस महान् तत्त्व से मिलाना है, जिससे सभी प्राणी उत्पन्न हुए हैं, जिसमें वे रहते हैं और जिसमें अंत में मिल जाते हैं। सभी नदियाँ सागर से अपना जल अर्थात्ï जीवन प्राप्त करती हैं, सागर की ही ओर प्रगति करती हैं और सागर में ही समाप्त हो जाती हैं। जब मनुष्य अपने व्यक्तित्व को समाज रूपी सागर  में विलीन  करने का लक्ष्य बना लेता है, जब वह समाज के सुख में अपने सुख को देखने लगता है और जब उसके सभी विचार और क्रियाओं का लक्ष्य समाज का हित बढ़ाना होता है, तभी हम उसे सुविकसित व्यक्तित्व का मानव कह सकते हैं। संसार की अच्छी शिक्षा का अंतिम लक्ष्य ऐसे ही सुविकसित व्यक्तित्व का निर्माण करना है।