मलिन मन भला कहीं चैन पा सकता है? वह अभागा यह भी नहीं जानता कि मानसिक स्वच्छता की भी कोई स्थिति इस संसार में होती है और उसे प्राप्त करने वाला स्वर्गीय सुख-शांति का अनुभव कर सकता है।
मनोविकार अगणित प्रकार के हैं और वे सभी अपने-अपने ढंग के रोग हैं। शरीर को दूसरे भी जान सकते हैं, पर मन का रोग भीतर छिपा होने से वह केवल रोगी व्यक्ति को ही दीखता है। इतना अंतर तो अवश्य है, बाकी कष्टों में कोई अंतर नहीं। सच तो यह है कि शरीर के कष्ट से मन का कष्ट अधिक दुखदायी होता है।
बुखार में पड़े रोगी को जितनी पीड़ा है, पुत्र-शोक से संतप्त व्यक्ति को उससे कहीं अधिक होती है। सिर-दर्द की तुलना में अपमान और असफलता का दु:ख गहरा है। क्रुद्ध और कामासक्त मनुष्य जितना असंतुलित दिखता है, उतना जुकाम-खाँसी का मरीज नहीं। लोभी और स्वार्थी जितना पाप-प्रवृत्त रहता है, उतना भूखा और दरिद्र नहीं। रोगी मनुष्य स्वयं जितना व्यथित रहता और दूसरों को जितना दु:ख देता है, उसकी अपेक्षा मनोविकारग्रस्त का क्षेत्र अधिक विस्तृत है। वह स्वयं भी अधिक दु:ख पाता है और दूसरे लोगों को भी अधिक मात्रा में सताता है। इसलिए शारीरिक आरोग्य की जितनी आवश्यकता अनुभव की जाती है, मानसिक आरोग्य पर उससे भी अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।