कर्मवाद और मानवीय प्रगति

कर्मवाद और मानवीय प्रगति इस बात पर भी कुछ विचार करना चाहिए कि अपनी परिस्थितियों, अभिरूचियों तथा अवसरों की ओर हमारा भाव कैसा होना चाहिए। एक बात तो स्पष्टï है कि ये परिस्थितियाँ हमको पूर्व जन्म की कमाई के फलस्वरूप प्राप्त हुई हैं। हमारे अपने ही किए कर्म इन रूपों में हमारे सामने आ उपस्थित हुए हैं। इनके बदलने का हमें क्या, किसी को अधिकार नहीं है। कोई साधु, फकीर, महात्मा अथवा देवता, कर्म की लकीर को नहीं काट सकते। तुलसीदास जी ने कहा है, ‘विधि कर लिखा को मेटनहारा।’ इनसे निपटारा, तो इन्हें भोगने के बाद ही हो सकता है, पर जिस प्रकार इनको भोगा जाएगा, उसी के अनुसार आगे आने वाले जन्म की परिस्थितियाँ बनेंगी। इसलिए दु:खदायक परिस्थितियों के आने पर रोना-पीटना बेकार है। उन्हें सहर्ष स्वीकार कर आनंदपूर्वक भोग लेना चाहिए। यदि पूर्ण न्याय के साथ हमारा पुराना कर्म अपना फल चुकाने आता है, तो हमें दु:खी क्यों होना चाहिए? वास्तव में यह खुश होने का अवसर है, क्योंकि इसके द्वारा कम-से-कम कुछ हद तक तो अपनी करनी का बोझ हमारे सिर से उतर जाता है। इसलिए पूर्व कर्मफल के बदले में प्राप्त सुख-दु:खों से जरा भी विचलित न होकर उन्हें सहर्ष स्वीकार कर इस जन्म में हमको अच्छा कार्य करना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार हमारा भविष्य अवश्य उज्ज्वल हो सकेगा।