आचरण और व्यवहार में सत्य का प्रयोग

मनुष्य का कत्र्तव्य है कि सत्य और असत्य का भेद पहचानने का प्रयत्न करता रहे। सत्य आध्यात्मिक जगत्ï का सर्वोत्तम रत्न है और भगवान्ï ने उसे पहचानने की निश्चित योग्यता भी मनुष्य को दी है, पर आधुनिक युग के कुतर्कशील लोगों ने उसका स्वरूप ऐसा गँदला कर दिया है कि उसकी पहचान करना भी बड़ा कठिन हो जाता है। इसके लिए सबसे पहला उपाय यह है कि हम स्वयं मन, वाणी और कर्म से सदा सत्य का पालन करें। जो व्यक्ति सत्य का पालन करता है, वह सत्य और असत्य की पहचान अपने सहज ज्ञान से शीघ्र ही कर सकता है।
सत्य और असत्य की पहचान पर ज्यादा जोर देने की आवश्यकता इसलिए भी है कि संसार में आजकल अनेक मूर्खतापूर्ण असत्य विचार और अंधविश्वास भरे पड़े हैं और जो व्यक्ति इनका दास बना रहता है, वह कभी उन्नति नहीं कर सकता।
इसलिए तुम्हें किसी बात को ग्रहण नहीं करना चाहिए कि उसे बहुसंख्यक लोग मानते है वह शताब्दियों से चली आई है अथवा उन धर्म-ग्रंथों में लिखी है, जिन्हें लोग पवित्र मानते हैं। तुम्हें उस पर स्वयं भी विचार करके उसके सत्य-असत्य और उचित-अनुचित होने का निर्णय करना चाहिए। याद रखो कि एक विषय पर चाहे एक हजार मनुष्यों की सम्मति क्यों न हो, किन्तु यदि वे लोग उस विषय में कुछ भी नहीं जानते, तो उनके मत का कुछ भी मूल्य नहीं है।