मनुष्यों में एक प्रवृत्ति यह पाई जाती है कि वे दूसरे के कामों में बहुत जल्दी हस्तक्षेप करने लगते हैं। यदि विचारपूर्वक देखा जाए, तो कोई अन्य मनुष्य जो कुछ कहता, करता या विश्वास करता है, उससे तुम्हारा कोई सरोकार नहीं। तुम्हें उसकी बात पूर्णतया उसी की इच्छा पर छोड़ देनी चाहिए। तुम स्वयं अपने कार्यों में जिस प्रकार की स्वतंत्रता की इच्छा करते हो, वही दूसरों को भी देनी चाहिए।
वास्तव में किसी सज्जन व्यक्ति को कभी दूसरों के कार्यों और विश्वासों में कोई हस्तक्षेप न करना चाहिए, जब तक कि उनके किन्हीं कार्यों से सर्वसाधारण की प्रत्यक्ष हानि न होती हो। यदि कोई मनुष्य ऐसा व्यवहार करता है, जिससे कि वह अपने पड़ोसियों के लिए दु:खदायी बन जाता है, तो उसे उचित सम्मति देना कभी-कभी हमारा कत्र्तव्य हो जाता है, पर ऐसा मौका आने पर भी बात को बहुत नम्रता और सरलतापूर्वक प्रकट करना चाहिए।
अगर कोई व्यक्ति तुम्हारे विचार से कोई बड़ी भूल कर रहा है, तो तुम उसे एकांत में अवसर ढूँढ़ कर यह बतला सकते हो कि ‘आप ऐसा क्यों करते हो?’ संभव है ऐसा करने से वह तुम्हारी बात पर विश्वास कर सके, किन्तु अनेक स्थानों पर तो ऐसा करना भी अनुचित रूप से हस्तक्षेप ही करना होगा। किसी तीसरे व्यक्ति के सामने तो उस बात की चर्चा कदापि नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह उसकी निंदा करना होगा, जो किसी सभ्य व्यक्ति को शोभा नहीं देता।
Categories