कार्य को आरंभ न करने मात्र से व्यक्ति निष्कर्मावस्था का आनंद प्राप्त नहीं करता। शरीर के द्वारा निष्क्रिय हो गए, तो क्या लाभ, क्योंकि बंधन और मोक्ष का कारण तो मन है। मन को निष्क्रिय बनाना है। मन की निष्क्रियता है-कर्म और कर्मफल से अनासक्त रहना।
आलसी बनकर बैठे मत रहो। फल में अपना अधिकार ही नहीं। उद्योग करने पर भी फल प्राप्त होगा, यह निश्चित नहीं। फल प्राप्त हो भी, तो वह प्रारब्ध से होता है, उद्योग उसका कारण नहीं, ऐसा समझकर उद्योग करना ही चाहिए, क्योंकि तुम कर्म को छोड़ नहीं सकते, कर्म करने के लिए विवश हो।
‘न कश्चित्ïक्षणपि जातु तिष्ठïत्यकर्मकृत्ï। कार्यते ह्यïवश: कर्म सर्वं प्रकृतिजैर्गुणै:॥’’
कोई उत्पन्न हुआ प्राणी एक क्षण भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता। प्रकृति के गुणों से विवश होकर गुणों द्वारा उससे कर्म कराया ही जाता है। सभी इस प्रकार प्रतिक्षण कर्म करते ही रहते हैं। चाहे हम इंद्रियों को रोककर कर्म करने से विरत भी रख सकें, पर मन तो मानने से रहा उसकी उधेड़बुन तो चला ही करेगी। फिर इस प्रकार इंद्रियों से कर्म न करना कोई अच्छा तो है नहीं। जो मूर्खबुद्धि पुरुष कर्मेंद्रियों को कर्मों से रोककर मन के द्वारा विषयों का चिंतन करता है, वह पाखंडी कहा जाता है।