संसार में जितना भी दु:ख, क्लेश, कलह, रोग, शोक, भय, दैन्य, दारिद्र्ïय फैला हुआ है, उसका मूल कारण अज्ञान है। मनुष्य के हाड़-मांस के शरीर में अन्य वस्तुएँ पशुओं से भी घटिया हैं। उसकी एक ही विशेषता है और उसी के आधार पर वह विश्व का मुकुटमणि बना हुआ है, वह है-ज्ञान। इसी ज्ञान-शक्ति के शुद्ध-अशुद्ध होने पर जीवन के भले-बुरे, सुखी-दु:खी होने की आधारशिला निर्भर करती है। स्वर्ग और नरक कोई स्थान विशेष नहीं हैं, वरन्ï मन की दो वृत्तियाँ हैं। दुर्भाग्ययुक्त मस्तिष्क सदा ईष्र्या, द्वेष, चिंता, भय, शोक, दीनता और परेशानी में डूबा रहता है, जबकि सद्ïभावना को अपने स्वभाव में समुचित स्थान देने वाला व्यक्ति अपने चारों ओर प्रसन्नता, आत्मीयता, स्नेह, शिष्टïाचार, सहयोग, उदारता का वातावरण देखता है और सुखी तथा संतुष्टï रहता है। यही स्वर्ग-नरक है। कुविचारों का फल कुकर्म और कुकर्मों का परिणाम दु:ख, यही नरक का मार्ग है। सद्ïविचारों के फलस्वरूप सत्कार्य और सत्कर्मों का परिणाम सुख, यही स्वर्ग का सोपान है। स्वर्ग और नरक दोनों ही अपनी मुट्ïठी में हैं, उन्हें कोई दूसरा देता नहीं, वरन्ï हम स्वयं ही अपने लिए जिसे चाहते हैं, चुन लेते हैं।
जिनमें आत्मिक विवेक की समुचित मात्रा नहीं है, ऐसे धनी लोग तो गरीब लोगों से भी अधिक चिंतित और परेशान रहते हैं। मनोभूमि को ऊँची रखने वाले त्यागी लोग वस्तुओं का अभाव होते हुए भी स्वर्गीय शक्ति का रसास्वादन करते हैं।
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