आज हम उन्नति तो चाहते हैं, पर मानवीय सद्गुणों के विकास का प्रयत्न नहीं करते। समाज में शांति और संपन्नता रहे, यह सभी की इच्छा है, पर इसके मूल आधार पारस्परिक प्रेम-भाव की वृद्धि का उपाय नहीं करते। भौतिक सुविधाओं में वह शक्ति नहीं है कि व्यक्ति को श्रेष्ठ बना दे। अच्छे व्यक्तित्व में यह गुण मौजूद है कि वह संपन्नता का उपार्जन कर ले। हम इस तथ्य को जब तक न समझेंगे, तब तक दौलत के पीछे भागते रहेंगे।
आदर्शवाद की उपेक्षा करके संपन्नता के लिए घुड़दौड़ लगाने का परिणाम लाभ के स्थान पर हानिकारक ही सिद्ध हो सकता है। यह दुनिया अधिक अच्छी, अधिक सुंदर, अधिक संपन्न, अधिक शांतिपूर्ण बने- यदि हम सब यही चाहते हैं, तो फिर इस प्रगति के मूल आधार,व्यक्तित्व की श्रेष्ठता की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया जाता? यही आश्चर्य है।
प्रगति तभी स्थायी रह सकेगी, सुख-शांति में तभी स्थिरता रहेगी, जब मनुष्य अपने को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने का प्रयत्न करे। इस उपेक्षित तथ्य को अनिवार्य आवश्यकता के रूप में जब तक हम स्वीकार न करेंगे और व्यक्तिगत एवं सामूहिक चरित्र को ऊँचा उठाने के लिए कटिबद्ध न होंगे, तब तक अगणित समस्याओं की उलझनों से हमें छुटकारा न मिलेगा।