वास्तव में मानव जीवन एक ऐसे घने अंधेरे और अपार जंगल में यात्रा कर रहा है, जिसके संबंध में उसे कुछ भी ज्ञात नहीं है। हम कौन हैं? कहाँ से आए हैं? कहाँ जा रहे हैं? क्यों जा रहे हैं? किधर जाना है? कौन सा मार्ग उचित है? इन सब बातों का ठीक-ठीक पता विश्व-यात्रियों में से किसी को नहीं है। सब अपने-अपने अनुभव के आधार पर या दूसरों के कहने-सुनने के आधार पर अपनी कल्पना से इन प्रश्नों का उत्तर गढ़ लेते हैं।
जीवन की यह दशा होते हुए हमें क्या करना चाहिए, यह कहना बहुत कठिन है। यात्रा को स्थगित करके बैठ जाना तो उचित नहीं जान पड़ता, इसलिए अपने छोटे से ज्ञानरूपी प्रकाश से लाभ उठाते हुए, हृदय में जीवन के प्रति श्रद्धा और विश्वास रखते हुए चलते रहना ही उचित है। हाँ, एक बात तो निश्चित है, वह यह कि मेरी ही तरह और भी अनेक यात्री इस घने वन में भटक रहे हैं, मेरा और उनका मार्ग भले ही पृथक्ï हो, पर वे सब हैं तो मेरे ही समान भटकते व्यक्ति। उनके साथ सहानुभूति, प्रेम और सहयोग करना मेरे लिए इस कारण उचित है कि मैं स्वयं भी अपने प्रति उनकी सहानुभूति, प्रेम और सहयोग की आकांक्षा रखता हूँ। मुझे चाहिए कि जैसा व्यवहार मैं दूसरों से अपने प्रति नहीं चाहता, वैसा दूसरों के प्रति भी न करूँ।
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