निराश होना, चिड़चिड़ाना, चिंता करना, बड़बड़ाना, दूसरे की निंदा करना और अपना रोना रोते रहना, ये सब सड़े हुए विचार हैं, मन के रोग हैं। वे हमारे मस्तिष्क की दुर्दशा को प्रकट करते हैं। जो इस रोग से पीडि़त हों, उनको अपने विचार और व्यवहार का सुधार करना आवश्यक है। यह बात ठीक है कि संसार में पाप तथा दु:ख की अधिकता है, इसीलिए उसे हमारे पूर्ण प्रेम और दयाभाव की आवश्यकता है। रोने की किसी को जरूरत नहीं। ऐसा रोना तो सब जगह पहले से ही मौजूद है। इसलिए अगर जरूरत है, तो हमारे आनंदी और संतोषी स्वभाव की है, क्योंकि उसकी सर्वत्र कमी है। हम संसार को अपने स्वभाव और व्यवहार की मिठास से बढक़र और कोई चीज नहीं देख सकते। इसके अतिरिक्त सब व्यर्थ है। यही सबसे अच्छी चीज है, सत्य है, स्थायी है, अविनाशी है और इसी में समस्त सुख और परमानंद समाया हुआ है।
तुम पर यदि विपत्तियाँ आती हैं, तुम को हानि उठानी पड़ती है, तो उससे निराश मत हो। दूसरों के पापयुक्त व्यवहार की निंदा करना और उन व्यक्तियों का विरोध करना बंद कर दो। दूसरों को हानि पहुँचाने वाले एवं दुष्टïतापूर्ण विचारों को त्याग दो, क्योंकि इसी से तुम को मन की शांति, शुद्ध धर्म और सच्चे सुधार की प्राप्ति हो सकेगी
पं० श्रीराम शर्मा