जो मनुष्य दूसरों के लिए जितनी अधिक से अधिक प्रेम भावना रखता है और अपनी खुद की ओर से उदासीन रहता है, उसके लिए श्रेष्ठ बनना उतना ही सुगम होता है। इसके विपरीत जो मनुष्य अपने को जितना अधिक प्रेम करता है और दूसरों से अपनी जितनी ही अधिक सेवा कराता है, उतना ही वह दूसरे लोगों की भलाई कम कर सकता है। एक मनुष्य जो दूसरों को खिलाने के बजाय खुद ही बहुत अधिक खा लेता है, तो वह अन्य लोगों की दो प्रकार से हानि करता है। एक तो उसके अधिक खाने से दूसरों के भोजन में कमी पड़ जाती है और दूसरे अधिक खा लेने से वह अपनी शक्ति को भी खो बैठता है और दूसरों का हित करने के योग्य नहीं रहता।
बहुत से लोग ऐसा प्रकट करते “हं कि वे दूसरों से प्रेम करते हैं, पर उनका प्रेम केवल शब्दों तक ही सीमित रहता है। हम दूसरों के साथ तभी वास्तविक प्रेम कर सकते हैं जब कि अपने साथ प्रेम करना या अपना अनुचित स्वार्थ छोडें। ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं, जिनमें हम समझते हैं कि हम दूसरों से प्रेम करते हैं, पर वास्तव में हमारा प्रेम केवल दिखावा ही होता है। दूसरों को भोजन खिलाना या आश्रय देना हम भूल जाते “हं, पर अपने लिए भोजन तथा आश्रय प्राप्त करना कभी नहीं भूलते। इसलिए दूसरों को सचमुच प्रेम करने के लिए हमको वास्तव में अपने आप को अधिक प्रेम करना छोडऩा होगा।