जीवन अनेकों समस्याओं के साथ उलझा हुआ है। उन उलझनों को सुलझाने में, प्रगति पथ पर उपस्थित रोड़ों को हटाने में बहुधा हमारी शक्ति का एक बहुत बड़ा भाग व्यतीत होता है, फिर भी कुछ ही समस्याओं का हल हो पाता है, अधिकांश तो उलझी ही रह जाती हैं। उस अपूर्णता का कारण यह है कि हम हर समस्या का हल अपने से बाहर ढूँढ़ते हैं जब कि वस्तुत: वह हमारे अंदर ही छिपा रहता है।
यदि हम कोई आकांक्षाएँ करने से पूर्व अपनी सामथ्र्य और परिस्थितियों का अनुगमन करें तो उनका पूर्ण होना विशेष कठिन नहीं है। एक बार के प्रयत्न में न सही, सोची हुई अवधि में न सही, पूर्ण अंश में न सही, आगे पीछे न्यूनाधिक सफलता इतनी मात्रा में तो मिल ही जाती है कि काम चलाऊ सन्तोष प्राप्त किया जा सके। पर यदि आकांक्षा के साथ-साथ अपनी क्षमता और स्थिति का ठीक अन्दाजा न करके बहुत बढ़ा-चढ़ा लक्ष्य रखा गया है, तो उसकी स्थिति कठिन ही है। ऐसी दशा में असफलता एवं खिन्नता भी स्वाभाविक ही है। पर यदि अपने स्वभाव में आगा पीछा सोचना, परिस्थिति के अनुसार मन चलाने की दूरदर्शिता हो तो उस खिन्नता से बचा जा सकता है और साधारण रीति से जो उपलब्ध हो सकता है उतनी ही आकांक्षा करके शान्तिपूर्वक जीवन यापन किया जा सकता है।
अपने स्वभाव की त्रुटियों का निरीक्षण करके उनमें आवश्यक सुधार करने के लिए यदि हम तैयार हो जाएँ। तो जीवन की तीन चौथाई से अधिक समस्याओं का हल तुरन्त ही हो जाता है। सफलता के बड़े-बड़े स्वप्न देखने की अपेक्षा हम सोच समझ कर कोई सुनिश्चित मार्ग अपनावें और उस पथ पर पूर्ण दृढ़ता एवं मनोयोग के साथ कत्र्तव्य समझकर चलते रहें तो मस्तिष्क शान्त रहेगा, उसकी पूरी शक्तियाँ लक्ष्य को पूरा करने में लगेंगी और मंजिल तेजी से पास आती चली जायेगी।
समय-समय पर थोड़ी-थोड़ी जो सफलता मिलती चली जायेगी, उसे देखकर हर्ष और सन्तोष भी मिलता जायेगा, इस प्रकार लक्ष्य की ओर अपने कदम एक व्यवस्थित गति के अनुसार बढ़ते चले जायेंगे।
इसके विपरीत यदि हमारा मन बहुत कल्पनाशील है, बड़े-बड़े मंसूबे गाँठता और बड़ी-बड़ी सफलताओं के सुनहरे महल बनाता रहता है, जल्दी से जल्दी बड़ी से बड़ी सफलता के लिए आतुर रहता है तो मंजिल काफी कठिन हो जायेगी। जो मनोयोग कार्य की गतिविधि को सुसंचालित रखने में लगाना चाहिए था वह शेखचिल्ली के सपने देखने में उलझा रहता है। उन सपनों को इतनी जल्दी साकार देखने की उतावली होती है कि जितना श्रम और समय उसके लिए अपेक्षित है वह उसे भार रूप प्रतीत होता है। ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं त्यों-त्यों बैचेनी बढ़ती जाती है और यह स्पष्टï है कि बैचेन आदमी न तो किसी बात को ठीक तरह सोच सकता है और न ठीक तरह कुछ कर ही सकता है। उसकी गतिविधि अधूरी, अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित हो जाती है। ऐसी दशा में सफलता की मंजिल अधिक कठिन एवं अधिक संदिग्ध होती जाती है। उतावला आदमी सफलता के अवसरों को बहुधा हाथ से गँवा ही देता है।
एक संत का कथन है कि ‘मुझे नरक में भेज दो, मैं वहाँ भी अपने लिए स्वर्ग बना लूँगा।’ उनका यह दावा इसी आधार पर था कि अपनी निज की अन्त:भूमि परिष्कृत कर लेने पर व्यक्ति में ऐसी सूझ-बूझ की, गुण-कर्म स्वभाव की उत्पत्ति हो जाती है जिससे बुरे व्यक्तियों को भी अपनी सज्जनता से प्रभावित करने एवं उनकी बुराइयों का अपने ऊपर प्रभाव न पडऩे देने की विशेष क्षमता सिद्ध हो सके। यदि ऐसी विशेषता कोई व्यक्ति अपने में पैदा कर ले, तो यही माना जायेगा कि उसने संसार को सुधार लिया