दूसरों के गुण-दोष विवेचन में मनुष्य जितना समय खर्च करता है, उसका एक प्रतिशत भी यदि आत्मनिरीक्षण में लगाए तो आदर्श मनुष्य बन जाए। दूसरे के दोष आँख से दीख जाते हैं, पर अपने दोषों का चिंतन, मन के शांत होने पर स्वयं करना पड़ता है। शरीर का दर्पण तो कारीगरों ने बना दिया है, पर चरित्र का दर्पण अभी तक कोई नहीं बना और न बनेगा। जो व्यक्ति छिद्रान्वेषण करते हैं, वे प्राय: छिप कर करते हैं। पीठ-पीछे सब एक दूसरे को भला-बुरा कह लेते हैं, निंदा कर लेते हैं। हमारी बातचीत का विषय ही प्राय: परनिंदा होता है। मन में दुर्भावना रहते हुए अक्सर लोग चापलूसी भरी प्रशंसा करते रहते हैं। ऐसी प्रशंसा का सदा भूखा रहता है। अंतिम साँस तक भी मनुष्य की यह भूख नहीं जाती।
सच्चाई तो वही है, जो हमारे अंत:करण में छिपी है। अपना गुप्तचर आप बन कर ही उसका अनुसंधान कर सकते हैं। यह आत्मपरीक्षा ही हमें, हमारे चरित्र के असली स्वरूप को हमारे सामने प्रकट करेगी और तभी हम चरित्र में सुधार कर सकेंगे।
हमारा व्यवहार ही हमारे चरित्र का प्रतिनिधित्व करता है। हमें अपने को अपने ज्ञान से नहीं, वरन्ï अपने व्यवहार से परखना चाहिए।