आंतरिक दुर्बलताओं से लड़े

अज्ञान ही सबसे बड़ा बंधन है, इसी के पाश में जीव बँधा हुआ है। माया और अविद्या एक ही वस्तु के दो नाम हैं। जिस माया के वशीभूत होकर प्राणी कुकर्म करता और निविड़ बंधनों में जकड़ा हुआ भवसागर में डूबता-उतराता रहता है, वह और कुछ नहीं अज्ञान एवं भ्रम मात्र ही है।
अपने स्वरूप के संबंध में अपने अस्तित्व के संबंध में हम सबको भारी भ्रम है। कहने को शरीर और आत्मा को भिन्न माना जाता है, पर व्यवहार में शरीर ही आत्मा, शरीर ही सर्वस्व बना रहता है और जीव शरीर के लिए अपने आप को भयानक अंधकारमय भविष्य में डाल लेता है। यदि वस्तुस्थिति का ज्ञान हमें हो जाए और शरीर को आत्मा के एक तुच्छ उपकरण की तरह प्रयोग करें, तो जीवनोद्ïदेश्य की प्राप्ति का मार्ग सहज ही खुल सकता है।
कुविचारों, कुसंस्कारों, वासनाओं और तृष्णाओं में मनुष्य इसलिए ग्रसित रहता है कि वह उनकी तुच्छता और व्यर्थता को ठीक प्रकार न समझ कर उन्हीं को प्रिय मान लेता है और उन्हें अपने स्वभाव का एक अंग बना लेता है। बाहर से वह उन्हें बुरा-भला भी कहता है, पर भीतर गहराई तक जो जड़ें जमी हुई हैं, उन्हें काटने का प्रयत्न नहीं करता। फलस्वरूप अपनी आंतरिक दुर्बलताओं को जानते हुए भी मनुष्य उनके निवारण के लिए कुछ कर नहीं पाता।