सभी ईश्वर के पुत्र हैं और सब में परमात्मा का निवास है, यह मानते हुए यदि हम परस्पर एकता, निश्छलता, प्रेम और उदारता का व्यवहार करने लगें, तो जीवन में अजस्र पवित्रता का अवतरण होने लगे, सर्वत्र सद्ïव्यवहार के दर्शन होने लगे और आज जो कटुता, संकीर्णता और कलह का वातावरण दीख पड़ता है, उसका अंत होने में देर न लगे।
हमें केवल अपने शरीर के लिए नहीं, आत्मा के लिए भी जीना चाहिए। यदि मनुष्य शरीर की सुविधा और सजावट का ताना-बाना बुनते रहने में ही इस बहूमूल्य जीवन को व्यतीत कर दे, तो उसे वह लक्ष्य कैसे प्राप्त होगा, जिसके लिए जन्मा है। स्वार्थ में संलग्र व्यक्ति को विघटन की ओर ही बढ़ेंगे। उनके व्यवहार एक दूसरे के लिए असंतोषजनक और असमाधानकारक ही बनेंगे। ऐसी दशा में द्वेष और परायेपन की भावना बढ़ कर वातावरण को नारकीय क्लेश-कलह से भर देगी और यह संसार अशांति एवं विनाश की काली घटाओं से घिरने लगेगा।
यदि ईश्वर का पुत्र केवल शारीरिक सुखों के लिए जीवन धारण किए रहेगा, तो संसार में धर्म का राज्य कभी उदय न होगा। यदि अपने लिए ही जिया गया, तो मनुष्य पशुओं की अपेक्षा श्रेष्ठ कैसे बना रहेगा? ईश्वर का पुत्र अपने लिए नहीं ईश्वर के लिए ही जी सकता है, इसके अतिरिक्त उसके पास और दूसरा मार्ग ही क्या है?