मनोदशा में आवश्यकता सुधार हुए बिना न तो शारीरिक स्थिति सुधरती है और न पारिवारिक व्यवस्था बनती है। आर्थिक प्रश्न भी बहुत कुछ इसी के ऊपर निर्भर है। मन एक प्रकार का प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष है। उसके नीचे बैठकर हम जैसी भी कल्पनाएँ करते हैं, भावनाएँ रखते हैं, वैसी ही परिस्थितियाँ सामने आकर खड़ी हो जाती हैं। बिगड़ा हुआ मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु और सुधरा हुआ मन ही अपना सबसे बड़ा मित्र है। इसलिए गीताकार ने कहा है कि ‘उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानं अवसादयेत्ï’ अर्थात् अपना सुधार आप करें, अपने को गिरने न दें। अपना सुधार मनुष्य स्वयं ही कर सकता है। दूसरे की सिखावन की उपेक्षा भी की जा सकती है और नुक्ताचीनी भी। सुधरता कोई व्यक्ति तभी है, जब मन में अपने सुधार की तीव्र आकांक्षा जाग्रत्ï होती है। यह आत्मसुधार का जागरण ही मनुष्य के सोए हुए भाग्य का जागरण है।
लोग ज्योतिषियों से पूछते रहते हैं कि हमारा भाग्योदय कब होगा? वे बेचारे क्या उत्तर दे सकते हैं। हर मनुष्य का भाग्य उसकी अपनी मुट्ïठी में है। अपनी आदतों के कारण ही उसकी दुर्गति बनाई गई होती है। जब मनुष्य अपनी त्रुटियों को सुधारने, दृष्टिïकोण को बदलने और अच्छी आदतों को उत्पन्न करने के लिए कटिबद्ध हो जाता है, तो इस परिवर्तन के साथ-साथ उसका भाग्य भी बदलने लगता है।