हमारे अंदर अनेक दोष भरे पड़े हैं। वे सभी एक साथ नहीं छूट सकते। पैर में कई काँटे लग जाएँ, तो सब एक साथ नहीं निकल सकते। एक-एक करके ही उन्हें निकालना पड़ता है। जो काँटा अधिक कष्टकारक हो और जिसे निकालना अधिक आसान हो, पहले उसे ही निकालने का प्रयत्न करना बुद्धिमानी मानी जाएगी। आत्म-सुधार के लिए भी यही नीति अपनानी पड़ेगी। जो अधिक कष्टकारक दुर्गुण हैं, पर जिन्हें अधिक आसानी से निकाला जा सकता है, पहले उन्हें ही हाथ में लेना उचित है। हम ऐसे ही व्यावहारिक कदम उठाते हुए आत्म-सुधार की मंजिल पार करें, तो सफलता की संभावना सुनिश्चित हो जाएगी।
मस्तिष्क में बुद्धि रहती है और हृदय में भावना। भावनाओं को कोमल बनाना, हृदय को करुणा, दया, स्नेह, उदारता, सेवा, सद्भावना से ओत-प्रोत करना, विज्ञानमय-कोश के विकास की साधना है। इस साधना से हमारी अनुदारता, संकीर्णता, निष्ठुरता, निर्दयता, स्वार्थपरता पर अंकुश लगता है। दूसरों के सुख-दु:ख परिलक्षित होने लगते हैं। भावनाओं में ही भगवान् का निवास होता है। जिसकी भावनाएँ जितनी ही निष्ठुर हैं, वह उतना ही पतित है और जिसका हृदय जितना कोमल, स्नेहपूर्ण एवं उदार है, उसे उतना ही उच्च भूमिका में अवस्थित एवं भगवान् के निकट पहुँचा हुआ माना जाता है। सभी सफलताएँ इस एक बात पर निर्भर हैं कि कोई व्यक्ति अपना सुधार, निर्माण और विकास किस सीमा तक करने में समर्थ होता है।